Wednesday, January 26, 2011

जब अन्न से जरूरी हो गया है उबटन.....



टेढी बात
जब अन्न से जरूरी हो गया है उबटन.....

विकास आज के युग में अत्यावष्यक है, हर तरफ विकास का बोलबाला हैं। ये जीवन का अति महत्वपूर्ण एवं आवष्यक पक्ष हैं। ठीक उसी प्रकार से जिस प्रकार जीवन जीने के लिए अन्न (अर्थात मूलभूत ), और इसके विपरीत कुछ आवष्यकताएं जो ठीक अर्थ में आवष्यकता न होकर ख्वाहिष बन जाती हैं।
किसी ने ठीक ही कहा हैं कि श्आवष्यकता तो फकीर की भी पूर्ण हो जाती हैं मगर  आकांक्षाएं राजा की भी पूरी नही हो पातीश् क्योंकि आकांक्षा  उतनी ही अंतहीन हैं  जितना की आकाष। अतः आकांक्षा कभी मूलभूत नही हो सकती और उसे प्राथमिक तो किसी भी स्थिती में नही बनाया जा सकता।
अब इस आकांक्षा व आवष्यकता की कसौटी में नगरीय व ग्रामीण विकास को उतारकर देखने का प्रयास किया जाए। तो दिखेगा कि विकास मूलभूत हैं मगर सौन्दर्यकरण द्वितीयक अर्थात आकांक्षा। तो फिर हमें अपनी प्राथमिकताओं पर अवष्य विचार करना चाहिए।
अगर हमारे पास संसाधन कम हों तो हम अन्न का (मूलभूत आवष्यकताओं का ) प्राथमिकतापूर्वक प्रबंध करेंगें। ना कि उबटन या सौन्दर्य प्रसाधनों का। और अगर पर्याप्त मात्रा में भी संसाधन उपलब्ध हैं तो भी हम प्राथमिकता तय करके ही राषि का व्यय सदुपयोग करेंगें।
मगर विकास के खेल में हर तरफ ठगा सा रह रहा है आम आदमी। कोई क्या कर सकता हैं जब हमारे द्वारा चुने गये जनप्रतिनिधि एवं कुछ रसुखदारों का मत यह हैं कि ज्यादा जरूरी उबटन हैं चाहे घर में चुहो को भी भुखा रहना पडे। क्योंकि उबटन हर वक्त चेहरे को सुन्दरता देता हैं और सुन्दरता दिखती हैं। जो दिखता हैं वही बिकता हैं।
और चाहे फिर विकास का बोलबाला होने के कारण यह जनता को लुभाने का महत्वपूर्ण साधन ही बन जाए।
जैसा कि  राजस्थान राज्य के पाली जिले के रानी नगर में 26 जनवरी को हुआ। स्थानीय निकाय ने 24 जनवरी के दिन केनपुरा रोड में बने डिवाइडर के कुछ हिस्सों को तोडकर गड्ढा खुदवाकर ताबडतोड एक स्थान पर स्टाईलिष खंभा लगाकर दो मर्करी लाईटें लगवादी और उस पर एक षिलालेख का स्थान बनवाकर षिलालेख लगे बिना ही आननफानन में  पास के एक खंभे से लाईन जोडकर लोकार्पण करवा दिया गया। जबकि इस के दोनो ओर खंभे हैं और यंहा लाईटें भी लगी हुई हैं।
अगर इस लोकार्पण का उद्देष्य सच्चा विकास था अर्थात रोषनी करना ही था तों दोनो ओर के खंभों मंे जो लाईटें अगर बंद हैं तो उनकी मरम्मत करवानी चाहिए थी, या अन्य स्थान जंहा पर अंधेरा रहता हैं वंहा रोषनी की जानी चाहिए थी। जैसे इसी रोड से चार पांच सडके औद्योगिक क्षेत्र मंे जाती हैं वो पूरी अंधेरे में रहती हैं। और इन मार्गाें से श्रमिकों की एवं अन्य नागरिकों की आवाजाही लगी रहती है। और इसी रोड पर स्थित पंचायत समिति के पीछे की तरफ का कच्चा रास्ता जंहा पर कुछ वर्षाें पूर्व मुख्यमंत्री रोजगार योजना के कियोस्क जारी कर दिये गये थे मगर व्यापारिक दृष्टि से अनुप्युक्त क्षेत्र होने के कारण एक भी कियोस्कधारक ने कब्जा नही किया। वहां भी भरपूर अंधेरा होता हैं जिस कारण वंहा से यात्रा करना मुष्किल हो गया है और ये क्षेत्र आसपास के लोगों का शौचालय बना हुआ है। ऐसे कई और भी इलाकंे हैं। जिनको प्राथमिकता मंे स्थान मिल सकता है। और कई और समस्याएं हैं जो प्राथमिक हैं।  जैसे उक्त कियोस्क वाले क्षेत्र में शौचालय की समस्या आदि।
अब सोचिए कि उक्त लोकार्पण का उददेष्य विकास था या इन रसूखदारों के लिए श्जो दिखता हैं वही बिकता हैंश् के नारे पर चलकर वाहवाही लूटने का एक साधन। मैं यह कथापि नही कहना चाहुंगा कि शासन विकास नही करता है, शासन के द्वारा काफी विकास कार्य भी हुए है, मैं कहना चाहता हूं कि कार्य करने का उद्देष्य वाहवाही बटोरना ना होकर सच्चा विकास हो। विकास हो मगर प्राथमिकता से दूर रखे जाने योग्य कार्याें में व्यर्थ राषि व्यय करने से बचा जाए।
मगर शायद ये कार्य प्रषासकों की प्राथमिकता का एक अंग हों। इसमें हम क्या कर सकते हैं: शायद इनकी नजर में अन्न से जरूरी हो गया है उबटन.....
       
तरूण जोषी NARAD
  (कवि एंव लेखक)
                     रानी स्टेषन

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